चौथा भाग:
शीनम उन रास्तों पर दोबारा निकल पड़ी थी जिन्हें वह दोबारा देखना नहीं चाहती थी, उन पर चलना तो दूर की बात है। इन्हीं रास्तों पर चलकर कभी वह अपने अतीत से दूर आ गई थी, एक अलग रास्ता बनाने के लिये।
जगह पहले जैसी नहीं थी। बहुत कुछ ऐसा था जो इतना बदल गया था जिन्हें पहचान पाना भी मुश्किल था। मसलन छोटा सा शिवालय अब लगभग गिर गया था और बड़े से पीपल ले पेड़ ने उस पर अपना कब्जा जमा लिया था। पहले के लोगों ने चल-चल कर जो पगडंडियाँ बनाई थीं, वे अब पक्की सड़कों में तब्दील हो चुकी थीं।
लेकिन उस एक जगह पहुँच कर वह ठिठक गई।
वहाँ अब खेल का एक मैदान था, लेकिन तब वह उसके भविष्य के स्वप्नों का श्मशान था। यही वह जगह थी, जहाँ सब हमेशा के लिये बदल गया था।
वह वहीं निस्तब्ध सी खड़ी रही।
उसने उस दिन के बाद कभी अपने चेहरे को नहीं छुपाया था। वह क्यों छुपाती, आखिर उसकी तो गलती नहीं थी? लेकिन आज वह चेहरे को ढँक कर आई थी। उसे न जाने कौन सी हिचकिचाहट हो रही थी, उस जगह खुले चेहरे में जाने से?
किसलय से वह कैसे मिलती उस रूप में जिसके होने ने उसे किसलय से अलग कर दिया था? अंतिम बार किसलय ने उसे सुंदर ही तो देखा था? वह नहीं बताएगी कि वह वही है, वही पुरानी शीनम, जो कभी उसकी हुआ करती थी। अगला प्रश्न यक्ष प्रश्न था। क्या वह मुझे पहचान पाएगा?
रिक्शे वाले ने उसे एडवोकेट किसलय मनोहर के घर पहुँचा दिया। शीनम ने बाहर से ही अंदाजा लगा लिया कि इस घर में रहने वाला किसलय सुविधा सम्पन्न किसलय है, शायद पुराने वाले किसलय से अलग। उसने देखा कि वकील साहब के घर में एक ऑफिस है और ऑफिस से सटे ही एक वेटिंग रूम।
शीनम का चेहरा अभी भी ढका हुआ था।
उसे वकील साहब से मिलने का वक्त मिल गया। निर्धारित समय पर उसने किसलय को लगभग पच्चीस साल बाद दोबारा देखा।
उसका चेहरा अभी भी बच्चों जैसा ही था, लेकिन अब उस पर अमीरियत की स्पष्ट सी छाप थी। शीनम ने देखा, उसकी आँखें अभी भी छोटी-छोटी हैं, लेकिन उनमें अब गहराई कुछ बढ़ गई है।
सामान्य रह पाना शीनम के लिये मुश्किल था, लेकिन जो खुद ही सामान्य न हो, उसके लिये सामान्य होने की परिभाषा भी अलग ही होती है।
लेकिन उसे भी सब बहुत यत्न-पूर्वक करना पड़ रहा था।
‘वकील साहब मुझे न्याय चाहिये।‘ शीनम ने कहा।
‘जी बताएँ क्या हुआ आपके साथ?’ किसलय ने बिना सर ऊपर उठाए ही जवाब दिया।
‘पहले ये बताइये कि न्याय क्या अभियु्क्त की स्थिति के हिसाब से दिलवाएंगे आप या फिर अपराध के हिसाब से?’
किसलय के लिये सवाल नया था। वह अचानक उखड़ गया।
‘आप मुझे दलाल समझती हैं?’
‘आप फालतू नाराज होते हैं। आखिर अभियुक्तों के भी तो वकील कभी न कभी बने होंगे आप?’
किसलय इस नए क्लायंट की साफगोई से चकित हुआ।
‘देखिये मेरा समय बहुत कीमती है। जो कहना है, जल्दी कहिये।‘
‘जी जानती हूँ आप का समय कीमती है, आप काबिल भी हैं, इसीलिये आप के पास आई हूँ।‘
‘पहले तो आप यह स्कार्फ हटाएँ। इस तरह बात नहीं हो पाएगी।‘
‘जरूरी है?’
‘बिलकुल जरूरी है।‘
‘ठीक है। जाती हूँ फिर, मुझे नहीं पता था आप याची का चेहरा देख कर केस डिसाइड करते हैं।‘
शीनम ने कुर्सी को पीछे की तरफ धक्का देते हुए उठने का अभिनय किया। ‘अजीब औरत है? चुभने वाली बातें भी बोलती है और जिद भी करती है?’ कुछ तो ऐसा रहस्यमय था जो किसलय उसे जाने नहीं देना चाहता था।
‘रुकिये, न्याय आपको जरूर मिलेगा, लेकिन प्लीज सीधे-सीधे मुद्दे पर आइये, घुमा कर बात मत करिये।‘
‘वादा है आपका मुझे न्याय दिलवाएंगे आप?’
एक और सवाल से किसलय की खीझ बढ़ गई।
‘वादा करता हूँ कोशिश करूंगा। अब आप केस बताएँ प्लीज।‘
‘जी मुझे एक नामजद केस करना है।‘
‘जी। अभियुक्त का नाम पता है?’
‘जी।‘
‘केस क्या है?’
‘एसिड अटैक का केस है।‘
किसलय की कलम रुक गई। उसने चेहरा उठा कर एकबार याची की ओर देखा। किसलय हर ऐसे केस को लेकर एक बार जरूर ठिठक जाता था।
‘अभियुक्त का नाम?’
‘हां नोट कीजिये! प्रथम मनोहर. . .’
किसलय ने आश्चर्य से उस औरत को देखा। वह लिखना जारी न रख सका।
‘लिखिये, लिखिये. . . सन ऑफ श्री किसलय मनोहर. . . ‘
शीनम ने जोर देते हुए आगे कहा।
किसलय उसकी ओर देखता रहा।
‘ये क्या बकवास कर रही हैं आप? जानती तो होंगी वह मेरा बेटा है?’ किसलय ने उस से कहा।
‘क्यों? मैने तो आपसे कहा ही था, न्याय आप मुझे अपराध के हिसाब से दिलवाएंगे, आपने वादा भी किया है, अब क्यों मुकर रहे हैं? अपराधी आपका पुत्र होने से अपराधी नहीं रह गया? क्या उसका अपराध खत्म हो गया?’ शीनम भावातिरेक में बोलती चली जा रही थी।
किसलय सुनता रहा। आखिर और करता भी क्या?
‘हाँ! आपके लिये सब हमेशा बहुत आसान रहा है वकील साहब। तब भी, आज भी। आप रत्ती भर भी तो नहीं बदले।‘
‘आप हैं कौन?’
शीनम ने अपना स्कार्फ हटा दिया।
‘तुम!’ किसलय के चेहरे पर नामालूम कितने भाव एक साथ हाजिरी लगा गए?
‘चलिये, आप पहचानते तो हैं कम से कम?’ शीनम ने कह दिया।
‘सुनो विक्रम, आज की सारी अपॉइनमेंट्स कैंसल कर दो।‘ किसलय ने अपने असिस्टेंट से कहा।
‘बात कर सकते हैं? तुम चाहो तो. . .’ किसलय शीनम की ओर मुखातिब होता हुआ बोला।
‘न्याय दे सकोगे? पहले यह बताओ?’ उसने शीनम को पहचान लिया इसका उसे कुछ सुकून जरूर था।
‘मुझे सच में नहीं मालूम शीनम! मैं जीवन भर हर ऐसे केस में तुम्हें ढूंढता रहा लेकिन जानता नहीं था कि मेरा खुद का बेटा कभी. . .’
‘कितने भोले हो न तुम किसलय? तुम कहां जानते थे कि मैं तुम्हारा इंतजार करती-करती अंत में निराश हो गई? तुम कैसे यह भी जान पाओगे कि तुम्हारा लाडला किस तरह एक और मुझ सी लड़की बना चुका है? और तो और वह उस से प्रेम भी करता था।‘ शीनम ने ‘लाडला’ शब्द पर विशेष बल दिया था। किसलय भी इसका आशय समझ चुका था।
‘आसान नहीं होता शीनम। तुम्हारी मां के अंतिम संस्कार में भी मैं मौजूद था, खुद अपनी आंखों से मैंने उस दिव्यात्मा को आग में समाते देखा था। नमस्कार किया मैंने उन्हें जानती हो क्यों? चुनाव की घड़ी में सब हमारी मदद करने नहीं आते, सब डरते हैं कि उनके द्वारा सुझाए निर्णय अगर आगे चल कर गलत साबित हुए तो उन्हें बदले में केवल खराब रिश्ते मिलेंगे, लेकिन उन्होंने मेरी मदद की। अपनी खुद की बेटी के जीवन को भी उन्होनें उस चुनाव पर न्यौछावर कर दिया।‘
शीनम सब सुन रही थी। यह पहला मौका था जब वह किसलय से उस दुर्घटना के बाद मिल रही थी।
‘तुम्हें कुछ नहीं पता शीनम। उन्होंने मुझसे कहा था कि मेरा उनके पास जाना तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा, जानती हो क्यों? क्योंकि वे जानती थीं, प्रेम तुम्हें और कुंठित ही करेगा। ज्यादा नहीं कहूंगा बस इतना समझना कि उन्होनें अपना वादा कभी नहीं तोड़ा, मरने पर भी नहीं।‘
शीनम की आंख भर आई। मां महान थीं वह जानती थी, लेकिन केवल अपने भले के लिये नहीं, सबके भले के लिये। ऐसी महिला से कभी शीनम ने पूछा था, ‘अगर मैं आपकी बेटी न होती तो?’
‘तुम बहुत कुछ नहीं जानती शीनम। मेरे बेटे का नाम मैनें वही रखा है जो तुमने कभी कहा था। मां का दबाव न रहा होता तो मैं भी कभी विवाह न करता, क्योंकि मैं तुम्हें प्रेम करता था, मात्र तुम्हारे चेहरे को नहीं। बताओ क्या मेरा अपनी मां के मौत का कारण बनना उचित होता?’
शीनम सुनती रही। वह अपराधबोध महसूस कर रही थी। किसलय की बात से उसे यह बोध हो गया कि वह कहीं न कहीं अपनी मां की मृत्यु हेतु दोषी है।
‘प्रज्ञा को न्याय दिलवा सकोगे?’ शीनम ने ठंडी सांस भरते हुए कहा।
‘क्या चाहती हो बताओ?’ किसलय एक प्रेमी और पिता के कर्तव्यों के बीच कहीं द्वंद्व अपने भीतर पनपता हुआ महसूस कर रहा था। वह अपने न्याय-बोध के प्रति भी सदैव सजग रहा था। कुछ दबाव तो उसपर इस न्याय-पक्ष का भी था।
‘जो चाहती है वो प्रज्ञा चाहती है। मेरे चाहने का कभी कोई अस्तित्व था भी नहीं।‘
‘ऐसे व्यंग्य बाण मत छोड़ो शीनम। मैं एक पिता भी हूं, ध्यान रहे। मेरी मनःस्थिति तो समझ रही हो न?’
‘आकर मिल सकोगे एक बार मेरे एनजीओ में उससे? शायद वह इतने भर से ही संतुष्ट हो जाय?’
‘न हुई तो?’ किसलय ने सवाल किया।
शीनम ने लंबी सी सांस छोड़ी।
‘मान जाना चाहिये, लड़की है न?’ शीनम के वाक्य में विवशता भी थी।
‘एक बार प्रथम से भी पूछ लूं?’ किसलय ने कहा।
‘अरे! तुम तो आदर्श पिता निकले? लेकिन इतनी खबर भी न रख सके कि बेटा अपराधी कब बना?’
किसलय शीनम के इस उत्तर से झेंप गया।
‘बता दूं उसे कम से कम?’ झेंप में ही किसलय ने प्रश्न किया।
‘नहीं, आज ही चलेंगे। मैं भी साथ ही रहूं तो तुम्हें कोई दिक्कत?’ शीनम ने कह दिया।
‘जैसा ठीक समझो, लेकिन कुछ. . .’ किसलय ने संशय जताया।
‘बदला लेना होता किसलय, तो तुम्हारे बेटे का केस तुम अभी लड़ रहे होते। प्रज्ञा भी उसको प्रेम करती थी और लड़कियां जब प्रेम करती हैं किसलय, तब वे बदला नहीं लेतीं।‘
किसलय सिर्फ सर झुकाए सुनता रहा।
वह समय भी आ गया जब कई कहानियाँ एक मुकाम पर आकर मुकम्मल होने वाली थीं।
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‘द ब्यूटीफुल फेस’ यही नाम था उस संस्था का जो समर्पित थी, एसिड अटैक विक्टिम्स के पुनरुद्धार के लिए।
इस संस्था के काम करने का तरीका थोड़ा अलग था। यहां लड़कियों को जबरन बहुत मजबूत या जीविकोपार्जन के उपायों तक सीमित रहने का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता था, बल्कि सामान्य जीवन जीने का प्रशिक्षण दिया जाता था।
यहाँ ऐसी लड़कियाँ विशिष्ट दिखने के लिए नहीं, बल्कि सामान्य बनने के लिए प्रशिक्षित होती थीं।
सभी मु्ख्य पात्र एक जगह इकट्ठा हो चुके थे।
प्रथम की हालत किसी हलाल होने जाते बकरे की तरह थी। उसको यह आभास हो रहा था कि उसके साथ कुछ गलत होने वाला है, उसने अपने पिता की ओर देखा और उनको न जाने कहाँ देखता पाकर और शंका-ग्रस्त हो गया।
सभी मेहमानों को एक ही कक्ष में बिठाया गया था। एक अजीब सी निस्तब्धता कमरे में पसरी हुई थी।
कमरे में कुछ समय बाद कुछ लोग दाखिल हुए।
सबसे आगे प्रज्ञा और उसके पीछे शीनम। चार अच्छी सी सेहत वाले अन्य लोगों ने फुर्ती दिखाते हुए प्रथम को कुर्सी से जकड़ दिया।
प्रज्ञा के हाथ में एक पात्र था, जिसमें से धुआँ निकल रहा था।
प्रथम का संशय अब उसे वास्तविकता के करीब होता हुआ लगा। घुटी-घुटी सी चीख उसके गले से बाहर निकली। उसने एक बार फिर अपने पिता को कातर नेत्रों से देखा। किसलय अवाक सा केवल शीनम को देख रहा था।
चेतना-शून्यता से पार पाने में किसलय को भी वक्त लगा।
‘शीनम, ये क्या तमाशा है? रोको न उसे, देखो प्रथम को जला देगी ये?’
शीनम चुप रही।
‘शीनम! रोको न उसे, प्लीज! हर शर्त मान जाएगा प्रथम! बस रोक लो उसे।‘
‘शर्त? कैसी शर्त किसलय? क्या प्रथम ने उसके सामने कोई विकल्प छोड़ा था? बोलो क्या वह अभी भी प्रज्ञा को उतना ही प्रेम करता है? पूछो अपने बेटे से?’ शीनम क्षुब्ध बोलती रही।
‘किसलय, दंश समझते हो? तुम्हारे लिए कुछ देर सम्वेदना प्रकट कर लेना आसान है, लेकिन जिनके चेहरों पर यह दंश चिपका हुआ है, उनको कोई भी जीवन भर साथ नहीं रख सकता। जानते हो, यह समाज आज रैंप-वाक करवाता है हम जैसों से ताकि वह दिखा सके कि वह हमें सामान्य जिंदगी देने की ओर सोच रहा है, लेकिन केवल हम जैसे ही जानते हैं यह एक मजाक है। एक भद्दा मजाक. . .फिर भी हम जान कर उनको यह मौका देते हैं कि वे कुछ सीरियसनेस दिखा सकें, दिखावे में ही सही, कुछ देर हमें वह जीवन वापस कर सकें जो हमसे छीना गया है। सामान्य होना हम जैसों के लिए कठिन है किसलय, अत्यंत कठिन। कमाल जानते हो, हमें निरीह होना भी पसंद नहीं लेकिन क्या करें, यह द्वंद्व हमारी नियति बना दी जाती है, प्रथम जैसे लोगों द्वारा, और तुम कहते हो मैं उसे रोक लूं? कैसे रोक लूं बताओ किसलय?’
किसलय का सर और नीचे झुक गया।
‘प्लीज! तुमने वादा किया था शीनम!’ वह हताश था शायद अब।
‘न्याय होगा किसलय। प्रज्ञा! आगे बढ़ो।‘
प्रज्ञा दृढ़ता से आगे बढ़ती रही। वह प्रथम के बेहद नजदीक थी।
‘प्रज्ञा बेटी! थोड़ा ठहरो।‘ शीनम ने कहा।
प्रथम भय से काँपता रहा। उसे अब शायद खुद के ‘सुरक्षित’ रहने की कोई उम्मीद नहीं बच रही थी।
‘प्रज्ञा बेटी!’
‘जी माँ?’
‘बेटी तुम्हारा न्याय तो तुम्हें मिलने वाला है पर मेरा न्याय क्या होना चाहिए?’ शीनम ने प्रज्ञा से पूछा।
‘माँ! मेरा साफ मानना है, हर ऐसे अपराधी के चेहरे को जला देना चाहिए, ताकि. . ., ताकि उन्हें भी पता चले दर्द क्या होता है?’ प्रज्ञा ने उत्तेजित होते हुए कहा।
शीनम प्रज्ञा के पिता की ओर मुखातिब हुई,
‘क्यों मिस्टर वर्मा, आपका क्या कहना है?’
शेखर वर्मा उसी हॉल में मौजूद थे। वे अपना अतीत, अतीत का अपना वह अपराध और उस अपराध से प्रभावित लोगों को भूल चुके थे। उन्हें कुछ याद था तो बस वर्तमान, जहाँ वह एक पीड़िता के पिता थे। उनके चेहरे को शीनम गौर से देखती रही। वहाँ उसे कठोरता दिखाई दी।
‘प्रज्ञा एकदम सही कह रही है मैम। ऐसे अपराधियों को यही सजा मिलनी चाहिए।‘ बोलते समय शेखर वर्मा के चेहरे पर हिकारत के भी भाव पढ़े शीनम ने।
‘ठीक है। प्रज्ञा बेटा! मैं चाहती हूँ, जो न्याय तुम अपने लिए चाहती थीं वही मुझे दो।‘
शीनम की इस उद्घोषणा ने सभी को अवाक कर दिया।
‘पर माँ? आपका अपराधी भी तो. . .?’ प्रज्ञा ने प्रतिवाद किया।
‘मिस्टर शेखर वर्मा! आपको तो याद होना चाहिए था वह दिन, जब आपने एक लड़की को बरबाद कर दिया था? आपको तो याद होनी ही चाहिए थी अपनी वह मर्दानगी, आप कैसे भूल गए?’ शीनम की साँस गुस्से से फूल रही थी। उसकी नजरें अभी भी प्रज्ञा के पिता पर टिकी हुई थीं।
हॉल में स्तब्धता छाई हुई थी। प्रज्ञा के पिता का मौन उनके कलुषित अतीत का प्रमाण था।
‘प्रज्ञा! बेटी आगे बढ़ो! मुझे मेरा न्याय दे दो प्लीज। मेरा अपराधी तुम्हारे सामने खड़ा है बेटी!‘ शीनम की उंगली प्रज्ञा के पिता की ओर इंगित थी।
प्रज्ञा ठहर गई।
'पापा! यह सच है?' उसने बस इतना ही पूछा, क्षोभ और आश्चर्य के मिश्रित से भाव उसे अपने भीतर महसूस हो रहे थे।
प्रज्ञा के पिता का चेहरा अपराधबोध के भार से झुका जा रहा था। वे निश्चेष्ट से जहाँ खड़े थे वहीं खड़े रहे।
प्रज्ञा के हाथ में वह पात्र अभी भी धुँआ छोड़ रहा था। वह मूर्तिवत वहीं खड़ी रही, जैसे उसके पैरों में कोई भारी जंजीर पड़ी हो।
यह जंजीर ही तो थी। जिस संबंध में वह सदैव अपना स्नेह पाती रही थी आज पता चला कि वह स्नेह ही असल में वह पाप-चक्र था जिसने घूम कर उसे भी अपने दायरे में ले लिया था।
पर वह इतनी निष्ठुर हो सकती है कि अपने ही पिता को असीमित दर्द दे दे? उत्तर था 'नहीं'।
लेकिन वह प्रथम के प्रति इतनी निष्ठुर कैसे हुई?
इस प्रश्न में उसका द्वंद्व था। द्वंद्व यह कि खुद का चिराग अगर किसी का घर जला दे तो क्या चिराग को बुझा देना आसान है?
प्रज्ञा चीख पड़ी। उसकी चीख उसके अंतर्मन के घावों, उसकी विवशता सब कुछ खुद में समेटे हुए थी।
उसने अपने पिता के चेहरे को एक बार देखा, फिर प्रथम के चेहरे को। दोनों के ही चेहरे उसे एक जैसे लगे।
एसिड का पात्र उसने जमीन पर दे मारा।
वह पीला, गाढ़ा द्रव जमीन पर फैल गया।
फूट-फूट कर रोती प्रज्ञा घुटनों के बल जमीन पर बैठ गई।
हॉल का माहौल भारी हुआ जा रहा था। शीनम गंभीर थी और दुखी भी।
प्रज्ञा ने कंधे पर एक हाथ महसूस किया, यह प्रथम का हाथ था, जो उसे उठाने की चेष्टा कर रहा था।
प्रज्ञा ने वह हाथ झटक दिया और अपने पिता की ओर देखते हुए हिकारत से जमीन पर थूक दिया।
पिता को लगा जैसे प्रज्ञा ने उनके चेहरे पर वही अम्ल डाल दिया हो।
‘जाओ! प्रथम तुम्हारी संवेदनाएं नहीं चाहिए मुझे। बस हो गया।‘ प्रज्ञा ने सुबकते-सुबकते ही कह दिया।
‘संवेदना नहीं प्रज्ञा, बस एक बार मुझे अवसर दे दो, मुझे अवसर दे दो ताकि मैं अपना अपराध मिटा सकूं और हां! यह दया नहीं है, यह. . .’ कहता हुआ प्रथम भी प्रज्ञा के सामने अपने घुटनों पर बैठ गया।
प्रज्ञा अब न सहन कर सकी, वह फूट-फूट कर रोती हुई प्रथम से चिपक गई।
प्रथम के लिए जैसे बाकी सभी अस्तित्वहीन हो चुके थे।
उसने अपने होंठ प्रज्ञा के लुप्तप्राय, जल चुके अधरों पर टिका दिए।
इस चुंबन में अश्लीलता नहीं थी, इसमें एक आग्रह था, इसमें एक आशा थी।
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हॉल से शेखर वर्मा बाहर निकलने को हुए। शीनम ने उन्हें रोका नहीं। उनके नेत्र एक आखिरी बार शीनम के नेत्रों से मिले। उनकी आंखों में अभयदान की याचना थी और शीनम की आंखों में याचना की स्वीकार्यता।
किसलय अब शीनम के पास ही खड़ा था।
प्रज्ञा और प्रथम अब संयत थे।
‘न्याय के लिए धन्यवाद शीनम, तुम अभी भी उतनी ही खूबसूरत हो. . .जानती हो न, यू ट्रूली हैव अ ब्यूटीफुल फेस टिल नाउ?’ किसलय ने शीनम से कहा।
शीनम बस सुनती रही।
‘किसलय! प्रज्ञा अकेली नहीं है, मैं अकेली कितनों को न्याय दिलाऊंगी?’ अंत में उसने भी कहा।
‘अब तुम अकेली नहीं हो शीनम! बस इतना ही कह सकता हूँ।‘ किसलय ने उत्तर दिया।
शीनम ने देखा शेखर वर्मा हारे हुए जुआरी की तरह चले जा रहे थे। शीनम भागती हुई बाहर आई।
‘मिस्टर वर्मा! बेटी को विदा किए बिना चले जाएंगे? कैसे बाप हैं आप?’ उसने प्रज्ञा के पिता जी से कहा।
वे किसी नहर के मानिंद अपनी पीड़ा अभी तक दरवाजों से रोक कर रखे हुए थे, लेकिन अब उनके लिए भी यह संभव नहीं था।
जब वे शीनम के पैरों पर गिरे तब उनका अपराधबोध, उनकी पीड़ा सब कुछ नहर के उन दरवाजों को तोड़ कर बाहर आ चुका था।
नमी शीनम ने भी महसूस की थी।
समाप्त
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